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पृथ्वी में होने वाले बदलावों को दिखाने वाला चाँदी का कम्पास

दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत का गलना

29 जनवरी 2013  को, NHK द्वारा Our Time Close up नामक जानकारी प्रदायक कार्यक्रम प्रसारित किया गया. NHK जापान का राष्ट्रीय जन प्रसारण नेटवर्क है. इस कार्यक्रम में दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत के भविष्य में गलने की

दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली चट्टानों का ढहना

सम्भावना के विषय में जानकारी दी गई जोकि नवीनतम शोध व अनुसंधान पर अधारित थी.

ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों में जमी बर्फ भारी मात्रा में पिघल चुकी है.2007 में कराई गई जांच के अनुसार समुद्रों में हिम क्षेत्र के फैलाव का स्तर पिछ्ले 30 सालों में 40 प्रतिशत कम हो गया है तथा 2012 की गरमियों में यह अभी तक के सब से कम स्तर पर दर्ज किया गया.इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि ग्रीनलैंड में पाई जाने वाली बर्फ की मोटी परत इस टापू के सभी भागों में पिघल रही है.

पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली बर्फ का 90 प्रतिशत हिस्सा दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत के रूप में पाया जाता है. ऐसा कहा जाता है की यदि इस बर्फीली परत का 1 प्रतिशत हिस्सा गल जाए तो विश्व के समुद्री स्तर में 60 सेंटीमीटर तक की वृद्धि होगी. इसी कारण विश्व भर के शोधकर्ता दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत के विषय में शोध,प्रेक्षण व जांच करने में लगे हुए हैं.

पहले ऐसा सोचा जाता था कि दक्षिणी ध्रुव पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा नहीं है. परंतु हाल में की गई खोज-बीन से पता चला है कि दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के वातावरण में होने वाले बदलावों के प्रति अत्यंत संवेदंशील है. वास्तव में अंटार्कटिका, विशेषकर दक्षिणी ध्रुव प्रायद्वीप सबसे भयंकर स्तर की ग्लोबल वार्मिंग का प्रकोप झेल रहा है. लगभग 10 वर्ष पूर्व यह सुनिशचित हो गया कि इस हिस्से का पूर्वी सिरा जोकि टोकियो शहर के क्षेत्रफल के 1.5 गुना है, भारी स्तर तक ढह चुका है.

अंटार्कटिका का अधिकतम हिस्सा अर्थात् पूर्वी हिस्सा काफी हद तक अनछुआ है. इस भाग में पाई जाने वाली बर्फ की मोटी परत को आज तक जलवायु में होने वाले परिवर्तन से सुरक्षित माना जाता है क्योंकि यह पथरीली सतह पर स्थित है तथा आस-पास का तापमान अत्यंत कम है. परंतु जापानी जांच दल द्वारा किये गए शोध से पता चला है कि यह परत पहले अनुमानित स्तर से कहीं अधिक प्रभावित हो सकती है. इस से पता चलता है कि अंटार्कटिका पूर्वी हिस्से की बर्फीली परत बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है.

ऑस्ट्रेलिया की दक्षिणी ध्रुव ईकाई के सदस्य अमेरिका तथा इंग्लैंड के शोधकर्ताओं के साथ मिल कर दक्षिणी ध्रुव के भू-भाग की जांच में लगे हुए हैं. बर्फ की 5000 मीटर तक मोटी परत के नीचे छुपा इस क्षेत्र का वास्त्विक भू-भाग अत्यंत रहस्यमय है. हाल ही में एक विषेश रडार से लैस विमान को दक्षिणी ध्रुव के ऊपर से उड़ाया गया. लौट कर आए रेडिएशन से यह पक्का हो गया कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप नहीं बल्कि द्वीपों का समूह है. जांच से यह भी पता चला कि अंटार्कटिका का 45 प्रतिशत हिस्सा समुद्र के नीचे है. वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इस प्रकार की स्थिति में पाई जाने वाली बर्फ में स्थिरता की कमी होती है तथा यह आसानी से पिघल जाती है. यदि बर्फ की परत इसी प्रकार व इसी गति से पिघलती रही जैसा अनुमान लगाया जा रहा है और एक ऐसी स्थिति तक पहुंच गई जहाँ से लौट कर आना सम्भव ना हो, तो यह डर है कि इसके चलते बाकी बची हुई बर्फ भी लगातार पिघलती रहेगी.

ग्लोबल वार्मिंग के कारण हवा के औसत तापमान के आने वाले 100 सालों में 3 डिग्री तक बढ़ कर 125,000 साल पूर्व के तापमान के लगभग बराबर हो जाने की आशंका है.फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग में प्रवाल जीवश्म की उँचाई के आधार पर तुलनात्मक तापमान पर शोध किया जा रहा है जिसका निष्कर्ष यह निकला है कि 125,000 साल पहले का समुद्र का जल स्तर वर्तमान से 9 मीटर अधिक था. यह भी पता चला कि जहाँ 3 मीटर की वृद्धि ग्रीनलैंड इत्यादि में बर्फ के पिघलने से हुई थी, शेष 6 मीटर केवल दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत के गलने के कारण हुई.

इसके अतिरिक्त टोकियो विश्वविद्यालय के वायुमंडल व महासागर शोध संस्थान के द्वारा सुपर कम्प्यूटर से कराए गये अनुकरण से पता चला कि दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत का 60 प्रतिशत हिस्सा तेज़ी से गल रहा है. यह भी साफ हो गया कि ग्लोबल वार्मिंग के साथ निम्नलिखित घटनाक्रम दक्षिणी ध्रुव की बर्फीली परत के आकस्मिक रूप से घटने का कारण बन सकते हैं.

  • हिमालय की हिमनदियों के पिघलने तथा ग्रीनलैंड इत्यादि में बर्फ के पिघलने से समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी.
  • समुद्र के नीचे स्थित ज्वालामुखियों के जागृत होने से समुद्र के तापमान में वृद्धि होगी.

इन घटनाक्रमों के कारण समुद्र का पानी पृथ्वी के अंदर के भू-भागों में भर जाएगा. इसके साथ पिघलती तथा पतली होती जा रही बर्फ की परत समुद्री जल के उछाल व शक्ति से ऊपर उठ जाएगी जिससे बर्फीली चट्टानों में दरार आ जाएगी और इससे बनने वाले हिमखन्ड समुद्र की ओर बह जाएंगे जहाँ पिघलने की गति और भी तेज़ होगी.

पिछ्ले कुछ सालों में समुद्र के नीचे स्थित ज्वालामुखी जागृत होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिये, उत्तरी मरियाना टापू के सरीगन नामक भाग में 2010 में ज्वालामुखी फ़टा. हाल की बात करें तो तोंगा के पास मोनोवाई में समुद्र के नीचे स्थित ज्वालामुखियों की गतिविधियों के विषय में पता चला.इसके अतिरिक्त 29 अप्रैल,2012, जापान के मौसम अभिकरण के भूकम्प व ज्वालामुखी विभाग ने घोषणा की कि इवो टापू पर ज्वालामुखी जागृत होते जा रहे हैं

यदि समुद्र का जल स्तर 9 मीटर अधिक हो जाता है तो निचले स्तर पर स्थित भू-भाग जैसे तुवालु,मार्शल द्वीप,मालदीव,वेनिस इत्यादि जलमग्न हो जाएंगे तथा जापान व कई अन्य देशों की तटरेखा कई मील अंदर की ओर आ जाएगी. यह एक अत्यंत विकट स्थिति होगी.

पृथ्वी के संतुलन को वापस ला कर इस अपरिहार्य अनहोनी को टाला जा सकता है. सौहार्द को बनाये रखने के सभी संसाधनों को जुटाने की अतिशीघ्र आवश्यकता है. वैज्ञानिकों के पास समय सीमित है परंतु हम ना तो इस विपदा का भाजन बनने के लिये बने हैं ना ही हम केवल विज्ञान के सहारे हैं. पृथ्वी के लिये होओपोनोपोनो को समर्पित रूप से व नियमित करने से हम सभी अनमोल योगदान दे सकते हैं तथा शायद यही वह मार्ग है जिससे आपदा

को टाल कर हमारी प्यारी पृथ्वी का संतुलन वापस लाया जा सकता है.

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